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Thursday, July 25, 2024

यह सुबह आख़री है, न यह शाम आख़री है,

July 25, 2024 0
यह सुबह आख़री है, न यह शाम आख़री है,

2 line shayari

نہ یہ صبح آخری ہے ، نہ یہ شام آخری ہے،
 جہاں ہو ظلم کی کثرت وہ نظام آخری ہے

यह सुबह आख़री है, न यह शाम आख़री है,
जहाँ हो ज़ुल्म की क़सरत वह निज़ाम आख़री है।

This is neither the final morning, nor the final evening;
where there is an abundance of oppression, that system is the final one.

 


 

Faiz Ahmed Faiz Ghazal in urdu hindi and english

July 25, 2024 0
Faiz Ahmed Faiz Ghazal in urdu hindi and english
Faiz Ahmed Faiz Ghazal urdu shayari

 शाम के जुदाई के बारे में अब मत पूछो, वह आई और चली गई।
दिल था कि फिर से खुश हो गया, जान थी कि फिर से संभल गई।

तेरे ख्यालों की महफ़िल में, तेरे हुस्न की शमा जल गई।
दर्द का चाँद बुझ गया, जुदाई की रात ढल गई।

जब तुझे याद किया, सुबह महक उठी।
जब तेरा गम जागा, रात मचल गई।

दिल से तो हम हर बात साफ करके चले थे।
उनके सामने बात बदल गई।

आखिरी रात के हमसफ़र फैज़, पता नहीं क्या हुए।
किस जगह सबा रह गई, सुबह किस तरफ निकल गई।

Don’t ask about the evening of separation now, it came and passed.
The heart was once again consoled, the life once again steadied.

In the gathering of your thoughts, the candle of your beauty was lit.
The moon of pain dimmed, the night of separation passed.

When I remembered you, the morning blossomed.
When your sorrow awakened, the night became lively.

With all honesty, we had settled everything.
In front of them, the words changed.

Fellow travelers of the last night, Faiz, who knows what happened to them.
Where did the breeze remain, in which direction did the morning depart?









Sunday, July 21, 2024

Daag Dehlvi ki Ghazal

July 21, 2024 0
Daag Dehlvi ki Ghazal

Daag Dehlvi ki Ghazal

daag delhvi ki ghazal

काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है 
मुझ को ख़बर नहीं मिरी मिट्टी कहाँ की है 
सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया 
सुनता हूँ अब कि रोज़ तलब क़िस्सा-ख़्वाँ की है 
पैग़ाम-बर की बात पर आपस में रंज क्या 
मेरी ज़बाँ की है न तुम्हारी ज़बाँ की है 
कुछ ताज़गी हो लज़्ज़त-ए-आज़ार के लिए 
हर दम मुझे तलाश नए आसमाँ की है 
जाँ-बर भी हो गए हैं बहुत मुझ से नीम-जाँ 
क्या ग़म है ऐ तबीब जो पूरी वहाँ की है 
हसरत बरस रही है हमारे मज़ार पर 
कहते हैं सब ये क़ब्र किसी नौजवाँ की है 
वक़्त-ए-ख़िराम-ए-नाज़ दिखा दो जुदा जुदा 
ये चाल हश्र की ये रविश आसमाँ की है 
फ़ुर्सत कहाँ कि हम से किसी वक़्त तू मिले 
दिन ग़ैर का है रात तिरे पासबाँ की है 
क़ासिद की गुफ़्तुगू से तसल्ली हो किस तरह 
छुपती नहीं वो बात जो तेरी ज़बाँ की है 
जौर-ए-रक़ीब ओ ज़ुल्म-ए-फ़लक का नहीं ख़याल 
तशवीश एक ख़ातिर-ए-ना-मेहरबाँ की है 
सुन कर मिरा फ़साना-ए-ग़म उस ने ये कहा 
हो जाए झूट सच यही ख़ूबी बयाँ की है 
दामन संभाल बाँध कमर आस्तीं चढ़ा 
ख़ंजर निकाल दिल में अगर इम्तिहाँ की है 
हर हर नफ़स में दिल से निकलने लगा ग़ुबार 
क्या जाने गर्द-ए-राह ये किस कारवाँ की है 
क्यूँकि न आते ख़ुल्द से आदम ज़मीन पर 
मौज़ूँ वहीं वो ख़ूब है जो सुनते जहाँ की है 
तक़दीर से ये पूछ रहा हूँ कि इश्क़ में 
तदबीर कोई भी सितम-ए-ना-गहाँ की है 
उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़' 
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है