Baith Jata Hun Ghazal by Hafeez Jaunpuri - Urdu and Hindi Shayari Blog

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Friday, February 2, 2024

Baith Jata Hun Ghazal by Hafeez Jaunpuri


baith jata hun ghazal by Hafeez Jaunpuri
بیٹھ جاتا ہوں جہاں چھاؤں گھنی ہوتی ہے 

ہائے کیا چیز غریب الوطنی ہوتی ہے 

نہیں مرتے ہیں تو ایذا نہیں جھیلی جاتی 

اور مرتے ہیں تو پیماں شکنی ہوتی ہے 

دن کو اک نور برستا ہے مری تربت پر 

رات کو چادر مہتاب تنی ہوتی ہے 

تم بچھڑتے ہو جو اب کرب نہ ہو وہ کم ہے 

دم نکلتا ہے تو اعضا شکنی ہوتی ہے 

زندہ در گور ہم ایسے جو ہیں مرنے والے 

جیتے جی ان کے گلے میں کفنی ہوتی ہے 

رت بدلتے ہی بدل جاتی ہے نیت میری 

جب بہار آتی ہے توبہ شکنی ہوتی ہے 

غیر کے بس میں تمہیں سن کے یہ کہہ اٹھتا ہوں 

ایسی تقدیر بھی اللہ غنی ہوتی ہے 

نہ بڑھے بات اگر کھل کے کریں وہ باتیں 

باعث طول سخن کم سخنی ہوتی ہے 

لٹ گیا وہ ترے کوچے میں دھرا جس نے قدم 

اس طرح کی بھی کہیں راہزنی ہوتی ہے 

حسن والوں کو ضد آ جائے خدا یہ نہ کرے 

کر گزرتے ہیں جو کچھ جی میں ٹھنی ہوتی ہے 

ہجر میں زہر ہے ساغر کا لگانا منہ سے 

مے کی جو بوند ہے ہیرے کی کنی ہوتی ہے 

مے کشوں کو نہ کبھی فکر کم و بیش رہی 

ایسے لوگوں کی طبیعت بھی غنی ہوتی ہے 

ہوک اٹھتی ہے اگر ضبط فغاں کرتا ہوں 

سانس رکتی ہے تو برچھی کی انی ہوتی ہے 

عکس کی ان پہ نظر آئنہ پہ ان کی نگاہ 

دو کماں داروں میں ناوک فگنی ہوتی ہے 

پی لو دو گھونٹ کہ ساقی کی رہے بات حفیظؔ 

صاف انکار سے خاطر شکنی ہوتی ہے  

नहीं मरते हैं तो ईज़ा नहीं झेली जाती 

और मरते हैं तो पैमाँ-शिकनी होती है 

दिन को इक नूर बरसता है मिरी तुर्बत पर 

रात को चादर-ए-महताब तनी होती है 

तुम बिछड़ते हो जो अब कर्ब न हो वो कम है 

दम निकलता है तो आज़ा-शिकनी होती है 

ज़िंदा दर-गोर हम ऐसे जो हैं मरने वाले 

जीते-जी उन के गले में कफ़नी होती है 

रुत बदलते ही बदल जाती है निय्यत मेरी 

जब बहार आती है तौबा-शिकनी होती है 

ग़ैर के बस में तुम्हें सुन के ये कह उठता हूँ 

ऐसी तक़दीर भी अल्लाह ग़नी होती है 

न बढ़े बात अगर खुल के करें वो बातें 

बाइस-ए-तूल-ए-सुख़न कम-सुख़नी होती है 

लुट गया वो तिरे कूचे में धरा जिस ने क़दम 

इस तरह की भी कहीं राहज़नी होती है 

हुस्न वालों को ज़िद आ जाए ख़ुदा ये न करे 

कर गुज़रते हैं जो कुछ जी में ठनी होती है 

हिज्र में ज़हर है साग़र का लगाना मुँह से 

मय की जो बूँद है हीरे की कनी होती है 

मय-कशों को न कभी फ़िक्र-ए-कम-ओ-बेश रही 

ऐसे लोगों की तबी'अत भी ग़नी होती है 

हूक उठती है अगर ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ करता हूँ 

साँस रुकती है तो बर्छी की अनी होती है 

अक्स की उन पे नज़र आइने पे उन की निगाह 
दो कमाँ-दारों में नावक-फ़गनी होती है 
पी लो दो घूँट कि साक़ी की रहे बात 'हफ़ीज़

साफ़ इंकार से ख़ातिर-शिकनी होती है 

source: rekhta.org


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